Description
कथा
पुराणों में गणेशजी के संबंध में अनेक आख्यान वर्णित है। एक के अनुसार शनि की दृष्टि पड़ने से बाल गणेश का सिर जल कर भस्म हो गया। इस पर दुःखी पार्वती से ब्रह्मा ने कहा- जिसका सिर सर्वप्रथम मिले उसे गणेश के सिर पर लगा दो। पहला सिर हाथी के बच्चे का ही मिला। इस प्रकार गणेशजी ‘गजानन’ बन गए। दूसरी कथा के अनुसार गणेशजी को द्वार पर बिठा कर पार्वती स्नान करने लगीं। इतने में शिव आए और पार्वती के भवन में प्रवेश करने लगे। गणेशजी ने जब उन्हें रोका तो क्रुद्ध शिव ने उसका सिर काट दिया। एक दंत होने के संबंध में कथा मिलती है कि शिव-पार्वती अपने शयन कक्ष में थे और गणेशजी द्वार पर बैठे थे। इतने में परशुराम आए और उसी क्षण शिवजी से मिलने का आग्रह करने लगे। जब गणेशजी ने रोका तो परशुराम ने अपने फरसे से उनका एक दांत तोड़ दिया। एक के अनुसार आदिम काल में कोई यक्ष राक्षस लोगों को दुःखी करता था। कार्यों को निर्विघ्न संपन्न करने के लिए उसे अनुकूल करना आवश्यक था। इसलिए उसकी पूजा होने लगी और कालांतर में यही विघ्नेशवर या विघ्न विनायक कहलाए। जो विद्वान् गणेशजी को आर्येतर देवता मानते हुए उनके आर्य देव परिवार में बाद में प्रविष्ट होने की बात कहते हैं, उनके अनुसार आर्येतर गण में हाथी की पूजा प्रचलित थी। इसी से गजबदन गणेशजी की कल्पना और पूजा का आरंभ हुआ। यह भी कहा जाता है कि आर्येतर जातियों में ग्राम देवता के रूप में गणेशजी का रक्त से अभिषेक होता था। आर्य देवमंडल में सम्मिलित होने के बाद सिन्दूर चढ़ाना इसी का प्रतीक है। प्रारंभिक गणराज्यों में गणपति के प्रति जो भावना थी उसके आधार पर देवमंडल में गणपति की कल्पना को भी एक कारण माना जाता है।
मान्यतानुसार
धार्मिक मान्यतानुसार हिन्दू धर्म में गणेशजी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेशजी विघ्न विनायक कहलाते हैं। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय भगवान \गणेशजी का जन्म हुआ था। ये शिवजी और पार्वती के दूसरे पुत्र हैं। भगवान गणेशजी का स्वरूप अत्यन्त ही मनोहर एवं मंगलदायक है। वे एकदन्त और चतुर्बाहु हैं। अपने चारों हाथों में वे क्रमश: पाश, अंकुश, मोदकपात्र तथा वरमुद्रा धारण करते हैं। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा पीतवस्त्रधारी हैं। वे रक्त चन्दन धारण करते हैं तथा उन्हें रक्तवर्ण के पुष्प विशेष प्रिय हैं। वे अपने उपासकों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। एक रूप में भगवान श्रीगणेश उमा-महेश्वर के पुत्र हैं। वे अग्रपूज्य, गणों के ईश, स्वस्तिकरूप तथा प्रणवस्वरूप हैं।
गणेश चतुर्थी पूजा-विधि
सनातन धर्म ग्रंथ एवं शास्त्रों के अनुसार संसार में सर्वप्रथम पूजनीय देवता भगवान गणेश है, हर शुभ कार्य करने से पहले हमेशा गणेश जी का पूजा किया जाता है।
गणपति की स्थापना करने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है। सबसे पहले घर, मंदिर साफ करें और स्नान करने के बाद साफ वस्त्र पहनें। पूजन सामग्री लेकर पूर्व दिशा की ओर मुख कर शुद्ध आसन पर बैठ जाएं। अपने घर के पूर्व दिशा में भी गणेश जी की प्रतिमा या मूर्ति रख सकते हैं और दक्षिण पूर्व में दीपक जलाएं। गणेश जी की मूर्ति को किसी लकड़ी के पटरे या गेहूं, मूंग, ज्वार के ऊपर लाल वस्त्र बिछाकर स्थापित करें। गणेश भगवान की प्रतिमा की पूर्व दिशा में कलश रखें। गणपति की प्रतिमा के दाएं-बाएं रिद्धि-सिद्धि को भी स्थापित करें और साथ में एक-एक सुपारी रखें। अपने ऊपर जल छिड़कते हुए ऊँ पुण्डरीकाक्षाय नमः मंत्र का जाप करें। भगवान गणेश को प्रणाम करें और तीन बार आचमन करें तथा माथे पर तिलक लगाएं। मूर्ति स्थापित करने के बाद गणेश जी को पंचामृत से स्नान कराएं। उन्हें वस्त्र, जनेऊ, चंदन, दूर्वा, अक्षत, धूप, दीप, शमी पत्ता, पीले पुष्प और फल चढ़ाएं। पूजन आरंभ करें तथा अंत में गणेश जी की आरती करें और मनोकामना पूर्ति के लिए आशीर्वाद मांगे। गणेश चतुर्थी तिथि पर शुभ मुहूर्त को ध्यान में रखकर विधिपूर्वक पूजन की परम्परा निभानी चाहिए, जो अधिक लाभदायक होता है।
पूजन सामग्री :-
मूर्ति स्थापना के लिए लाल या पीला वस्त्र
लकड़ी का चौकी
प्रभु के लिए वस्त्र
घी
दीपक
शमी पत्ता
गंगाजल
पंचामृत
पान पत्ता
सुपारी
जनेऊ
लड्डू
चंदन
अक्षत
धूप
पांच ऋतू फल
फूल
दूर्वा
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